''आत्म-दर्शन-पथ"
पुस्तक परिचय
संतों ने ठीक ही कहा है -
दुनियां एक सराय है
और शरीर किराये का मकान
जब मालिक का आदेश मिलता है
तत्काल खाली करना पड़ता है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि शास्त्रों के अनुसार चौरासी लाख योनियों में सर्वोत्तम पदोन्नति प्राप्त कर प्रारब्ध कर्मों ने हमें मानव का ताज पहनाया है, जिसमें रहते हुए ही धर्म-अर्थ-काम के पुरुषार्थ को नीति अनुसार सम्पन्न करने के साथ-साथ ही जीवन के चौथे और अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करना है और यही मानव जीवन का परम उद्देश्य है। जब तक प्रकृति चलाने में मदद के लिए हमें यह शरीर भगवान ने दे रखा है तो हमें शरीर को संसार की सेवा में लगाकर निष्काम भाव से प्रभु कार्य समझकर ही कर्म करना है, अर्थात् हमें भगवान की सेवा में अपने आपको कठपूतली की तरह आत्म-समर्पण करना चाहिए। कठपूतली जड़ है, नट जिस प्रकार उसको चलाना चाहता है और जैसे नचाता है, वैसे ही नाचती है, वैसे ही सब करती है, यानी नट के प्रति वह पूर्णतः समर्पित है।
ठीक उसी प्रकार जो पुरुष चेतन शक्ति रहते हुए भी तन-मन से उस कठपूतली के समान भगवान को समर्पित कर देता है, वह उसका चाहे सो करे, उसे कोई आपत्ति नहीं होती। ऐसा पुरुष जीते हुए भी मुक्त होता है अर्थात् वह जीते हुए भी मुर्दे के समान प्रभु को समर्पित हो जाता है। मुर्दा कोई आपत्ति नहीं करता। इस प्रकार जो चेतनावस्था में भी मुर्दें का सच्चा स्वांग कर दिखलाता है वही - जीवन-मुक्त है, राजा जनक की तरह विदेही।
यह मुर्दा कला अपने व्यवहार में लाने के लिए यही सोच अपनानी होगी कि ईश्वर का शरीर है एवं ईश्वर का ही संसार है, वह इस शरीर को चाहे जिस कार्य में लगाये, जैसा कि तुलसीदास जी महाराज ने फरमाया है-
''जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।"
हमें अपनी ओर से राग-द्वेष, अहंता और ममता से ऊपर उठकर सुख-दुःख, जन्म-मरण, सब में प्रभु कृपा ही समझनी चाहिए। उक्त विचार रखने वाला एवं अपने व्यवहार में लाने वाला भक्त-सन्त ही भगवत-अधीन अपने आपको समर्पित करते हुए ईश्वर के स्वरूप में ही वास करता है, जिसका भान सद्गुरु-कृपा से आत्म-ज्ञान प्राप्ति कर आत्म-निवेदक श्रद्धालु को होता है।
सदगुरु-कृपा से "आत्म-दर्शन-पथ" के माध्यम से रचनाकार हंसराज गोस्वामी 'हंस' द्वारा भजन-रचना मय व्याख्या के जरिये इन्हीं श्रद्धाभावों को आप तक पहुंचाने हेतु विनम्र प्रार्थना की गई है।