मानव स्वयं को जीवित मान बैठा है, इसलिए उसके मरने की प्रक्रिया थम सी गई है, परिवर्तन (बाह्य एवं आंतरिक) की संभावनाएं क्षीण होती जा रही हैं, जबकि मानव जीवित दिख रहा है, जीवित होने जैसी मूलभूत अवस्था में मानव नहीं है।
मैं सदा से अभूतपूर्व परिवर्तन में विश्वास रखता था और अध्यात्मक के प्रति निरन्तर रुचि बनी रही, अनेकों संत, महात्माओं एवं साधु-संयासियों के मध्य रहकर असीम, अनंत ब्रह्म-परब्रह्म के जीव के साथ बने रहस्यों को जानने के प्रति अभिरुचि एवं गुरुदेव के द्वारा प्रदत्त ज्ञान के आलोक में रहस्यों को जानने के लिए तत्परता ने ब्रह्म-परब्रह्म (आत्मा का साक्षात्कार एवं परमात्मा के स्वरुप का दर्शन) की स्वरूप स्थिति का अवलोकन ही नहीं कराया अपितु ज्योति-स्वरूप ब्रह्माण्ड के दर्शन कराने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है।