साहित्य संघर्ष के परिणाम होता है। भाषा पर लगी हुई लगाम, और निर्बाध विचारों के आपसी संघर्ष, वचन और कर्म के भेद,नेता एवं राजनीती के बीच के टूटे तारतम्य से ही व्यंग्य का जन्म होता है। अक्सर जो बातें, घटनाएं हमें तर्कहीन होने के कारण परेशान करती हैं, वही अपनी तर्कहीनता के कारण अत्यंत हास्यास्पद भी बन जाती हैं। एक मनुष्य के नाते हमारे अंदर सही -गलत, नैतिक -अनैतिक, सत्य -असत्य कहीं गढ़ा हुआ होता है। अपने चारों और हो रही जो घटनाएं हम इन सभी मानदण्डों पर उतरता नहीं पाते, वे हमें क्षोभ और एक विस्तृत वितृष्णा से भर देती हैं। ऐसे ही झूठ पाखण्ड से त्रस्त अंधियारे में एक निर्दोष मुस्कान कट तरह उतरता है, और दग्ध हृदयों को शीतल कर जाता है। व्यंग्य अपने निरीह स्वरुप को लेकर सामाजिक वार्तालाप के मंडप में उतरता है, और अपनी कपटहीन, भोली रौशनी से उन अंधेरों को शीतल और स्पष्ट कर जाता हैं जिन पर झूठ और पाप का व्यापार चलता है। यहाँ सम्मिलित व्यंग्य निबंधों का सन्दर्भ आधुनिक राजनैतिक परिवेश है जो हाल के वर्षों में लिखा गया है। एक परिपक्व व्यंग्य की विशेषता यह होती है की वह भले ही विशिष्ट परिस्थितियों में लिखा गया हो, उसकी प्रासंगिकता समय के जाने के पश्चात भी बनी रहती है। यदि कोई लेख इस संकलन में कर्णाटक चुनाव पर आधारित होगा तो भी आप देखेंगे की उसकी सत्यता राजस्थान या हरियाणा चुनावों में भी वैसी ही बनी रहती है। सत्य कटु होता है और एक व्यंग्य उस कड़वे पत्ते पे रखा गुलकंद है जो इस पान के बीड़े का स्वाद बनाये रखता है। आशा है की पाठकों के मन में इस पान का स्वाद देर तक बना रहेगा।
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