समय परिवर्तनशील है जो जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता है और सभी भौतिक वस्तुओं को रूप परिवर्तन के लिए बाध्य कर देता है। इससे समाज की भाषा भी अछूती नहीं रह पाती। संस्कृत भाषा का धर्म शब्द अनेकता में एकता का बोध कराता है और व्यक्ति को निष्काम कर्म करने की प्रेणना देता है। व्यक्ति राग, द्वेष, अपना - पराया व अन्य शारीरिक ज्ञान और बुराइओं से ऊपर उठ जाता है तथा जीवन को एक दर्पण के रूप में देखता है। लेकिन यही शब्द अब हिंदी भाषा में सामाजिक कुरीतियों का द्योतक बन गया है। जिस प्रकार उचित पता एवं उचित दिशा गंतब्य तक पहुंचने में सहायक होते हैं उसी प्रकार उचित भाषा व उचित ग्रन्थ शाब्दिक भ्रांतियों को सुलझाने में सहायक होते हैं। लेखक ने समय के प्रभाव से उत्पन्न शाब्दिक भ्रांतियों का सरल भाषा में निवारण करने का प्रयास किया है और मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाना है, परमात्मा कहाँ है, धर्म क्या है, मुक्ति क्या है, जीवन चक्र से कैसे मुक्ति पायी जा सकती है आदि सदियों से अनसुलझे प्रश्नों के अलावा समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार व कुरीतियों को समाप्त करने का भी समाधान दिया है।
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